एक चिन्ताजनक सवाल-‘‘बढ़ते अपराध’’
आरम्भ में यानि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कुछ वर्षों तक जब तक कि दे के पास विषेष कुछ नहीं था, सब ठीक चला। फिर रात-रात भर में टोपी व चेहरे बदल कर राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीयताा के कर्णधार बन जाने वालों ने, उनके सगे-सम्बन्धियों ने हथकण्डे़ दिखाने शुरू किये। देष के भोले कर्णधारों उन पर कुछ नोटिस न लिया। संसद आदि में शोर मचने पर कुछ अपराध के मामले प्रमाणित हो जाने पर भी अपराधियों को दंडित न कर, पता नहीं किस भय से बचाने का प्रयास किया गया। यहाँ तक कह दिया गया कि चलो देष का धन कहीं बाहर तो नहीं जा रहा है न? ऐसा कह कर वास्तव में इस देष के उच्च नेतृत्व और व्यवस्था ने अपराधीकरण का राष्ट्रीयकरण ही कर दिया। तभी तो अपराध कई तरह से, कई रूपों में विकास करके आज हमारा राष्ट्रीय चरित्र और सरकारी धर्म बन चुका है। इस देष अब तक इतने अधिक स्कैण्डल हो चुके हैं, उनके द्वारा इतने अरबों, खरबों धन चन्द लोगों द्वारा हड़पा जा चुका है कि यदि विदेषी ऋण प्राप्त न होते तो सरकार और देष का अब तक दिवाला ही पिट जाता। आम जनता तो दिवालिया है ही, बहुत संभव है देष भी बिक जाता। अपराधियों का यदि वष चले तो आज भी देष का बेच देने से न चूकें। क्योंकि आज समाज में हर प्रकार का अपराध चाहे वह चोरबाजारी हो, खाद्य सामग्री में मिलावट हो, गैर कानूनी व्यापार हो, तोड़-फोड़ कर बर्बादी करना हो, चोरबाजारी या मुनाफाखोरी हो, राजनीति में पैसा लेकर दल बदल करना हो, राष्ट्रीय गुप्त भेदों को शत्रुुओं को सौंप देना हो, महिलाओं पर अत्याचार हों या फिर भू्रण हत्या जैसा जघन्य अपराध, इतने गहरे जड़ जमा चुके हैं कि इसका निराकरण करना अत्यन्त कठिन है। आज भारतीय सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक जीवन अपराध की बैसाखियों पर खड़ा है। अंग्रेजों ने इस भयंकर रोग को स्वतन्त्रता के साथ-साथ भारत को सौंपा था।
आज मनुष्य का पतन इतना अधिक हो गया है कि देष-भक्ति और मानवता शब्द उसके कोष से ही निकल गये हैं। भौतिक वस्तुओं की चाह ने उसे अपराध भावना की दलदल में फंसा दिया है। धन प्राप्ति की लालसा मनुष्य को राष्ट्र और समाज के विषय में सोचने भी नहीं देती। देषद्रोह के साथ अन्य अनेकों अपराधों का बढ़ाने का कारण असंतोष ही है।
जब शासन तंत्र में चारा घोटाला, ताबूत घोटाला आदि देष को खोखला करते जा रहे हैं तो जन-साधारण की कौन कहे? और यदि किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही की भी जाती है तो छोटा कर्मचारी मारा जाता है जबकि बड़ी मछलियाँ साफ निकल जाती हैं। ईमानदार अफसरों को प्रतिवर्ष स्थानान्तरण का सामना करना पड़ता है जबकि भ्रष्ट अफसर अपने पद से जरा भी नहीं खिसकते। जो व्यक्त् िजितना बड़ा है वह उतने ही बड़े अपराधों में लिप्त है। ठेकेदार सीमेंट की कमी रेत मिलाकर पूरी करता है, फैक्ट्री निरीक्षक, उत्पादक कर निरीक्षक, माप, तौल, बाट सफाई निरीक्षक खाद्य सामग्री के नमूने भरने वाले आज सभी मालामाल हो रहे हैं। यह एक ऐसा जहर है जो सभी पी रहे हैं। इसके बावजूद भी पुरस्कृत किया जाता है उन धोखेबाजों को जो दूध में यूरिया, दवाईयों में मिलावट तथा मासूम बच्चों के गुर्दों का व्यापार कर कर इंसान के साथ हैवानियत का नंगा नाच खेलने पर उतारु हैं। जहाँ मानवता के संहार का तांड़व नृत्य, बेघर होने की असहनीय पीड़ा को भोगते कितने ही देषवासी और भगवान के नाम पर चलाये जा रहे आश्रमों में दानवता का नग्न रूप जैसे बढ़ते अपराध, इंसानियत का सिर झुका देने के लिए काफी हैं। अपराधों की चरम सीमा के अन्र्तगत शायद यह कहना अनुचित न होगा कि ‘‘सनम तू जहर खाकर भी नहीं मर सकता क्योंकि इस शहर के जहर में भी मिलावट है।’’
हर अपराध को रोकने लिए जब-जब नियम व कानून बनाये जाते हैं तब-तब उन नियमों व कानूनों को जेब में डाल अपराधों की संख्या में निरन्तर बढ़ोतरी करता हुआ मानव सीढ़ी के दो डंडे और ऊपर चढ़ जाया करता है।
अगर गहराई से दृष्टिपात किया जाए तो हमारे सामने आता है ‘‘बुभुक्षित किं न करोति पापम्’’ अर्थात् भूखा व्यक्ति क्या पाप नहीं कर सकता?’’
सर्वप्रथम निर्धनों की निर्धनता, बेरोजगारों की बेरोजगारी दूर करने का प्रयास किया जाए तो अपराधों का चढ़ता स्तर स्वयं ही नीचे आने लगेगा। इसके लिए समाज-सुधारकों तथा देष के कर्णधारों को भी ऐसी भावी योजना का निर्माण करना होगा, जो स्वस्थ तथा सुन्दर समाज के निर्माण मंे सहयोगी व पथ-प्रदर्षक के रूप में कार्य करे।
एक सीधी सच्ची कहावत है कि जब प्रेम, नियम व कानून की चाल असफल हो जाए तो अंतिम आवष्यकता है डंड़ा यानि कठोर दण्ड का प्रावधान। क्योंकि जहाँ एक अपराध की दण्ड की कठोरता दूसरे अपराध का गला घोंटती है वहीं अपराधी को खुला छोड़ देना और पीडि़त व्यक्ति के प्रति न्याय न होना अपराधी के हाथों का मजबूत बनाता है। पाकिस्तान में एक बलात्कारी की सजा फाँसी है। परिणाम, वहाँ ऐसे अपराध चुनिन्दा ही होते हैं। क्योंकि अपराध करने से पहले अपराधी परिणाम की सोचकर चलता है। वहीं हमारे देष में आये दिन समाचार पत्रों के पन्ने इन घटनाओं से रंगे-पुते रहते हैं। अपराधी पैसे देकर छूट जाते हैं और पीडि़त लड़कियों को कटघरे में खड़ा कर अदालती कार्यवाही अपने अष्लील प्रष्नों द्वारा एक बार फिर निर्वस्त्र करने पर मजबूर कर देती है। परिणाम, कुछ बेबस लड़कियाँ इस नासूर के साथ जीने की अपेक्षा मर जाना श्रेयस्कर समझती हैं और जो जिन्दा रहती हैं उन्हें समाज के तानों उलाहनों के साथ मरने से भी अधिक पीड़ा भोगनी पड़ती है।
कठोर दण्ड़ का प्रावधान उन्हीं लोगों द्वारा चलाया जा सकता है जिनका चरित्र पाक व साफ हो। इसके साथ-साथ जब तक प्रत्येक व्यक्ति स्वयं यह नहीं समझेगा कि हम देष के लिए काम कर रहे हैं, तब तक ऊपर नहीं उठ सकता। भले ही कुछ लोग घूसखोरी और लगाव-बुझाव में न फंसे हो, लेकिन उसमें फंसे हुए लोगों को जानते हुए भी उनके प्रति उदासीनता बरतते हैं, वे भी उतने ही अपराधी हैं।
प्रजातांत्रिक शासन-प्रणाली में जनता की आवाज शासन तक सरलता से पहुँच जाती है। जनता अपने सम्पूर्ण नैतिक बल और साहस से अपराधों को मिटाने का प्रयत्न करे।
पुलिस, राजनीति व अन्य क्षेत्रों में योग्यताा तथा चरित्र के धनी लोगों का ही मनोनयन होना चाहिए। योग्यता को जब अनदेखा कर दिया जाता है और पैसे को महत्ता दी जाती है तो कभी-कभी वही योग्यता विद्रोह का रूप धारण कर अपराधों को बढ़ावा देती है।
सम्भव सब कुछ है आवष्यकता है तो बस धैर्य, लगन व परिश्रम की, और इस आध्यात्मिक भावना को जगाने की, कि भगवान हमारे सभी शुभ तथा अषुभ कर्मो ं को प्रतिपल निहारा करता है। उसकी दृष्टि से कोई बच नहीं सकता। इन्हीं भावना के द्वाराा देष व समाज का कल्याण संभव है।
इन सब भावनाओं के अतिरिक्त सबसे अहम् सवाल है राजनीति में लगे ग्रहण पर सोच-विचार करने का। व्यवस्था और व्यवस्थापकों के चरित्र को साफ और पाक बनाने के लिए नेताजी सुभाष, सरदार पटेल, रफी अहमद किदवई, लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं की आवष्यकता है। इन्दिरा गाँधी जैसे व्यक्तियों की महज इसलिए आवष्यकता है कि वे विनोबा भावे शब्दों को फिर से किसी प्रकार का अनुषासन पर्व, जन-जीवन और सरकार पर ठोंक सकें। इच्छाओं का परिसीमन चाहे वह डंडे के बल पर ही क्यों न करना पड़े राष्ट्रीय चरित्र का हर सम्भव उपाय से निर्माण दूषित और अपराधी मनोवृत्ति वाले तथाकथित नेताओं अफसरषाही का बलपूर्वक नियमन और उदात्त मानवीय भावनाओं का जाकरण ही वे उपाय हैं जिनसे अपराधों का उन्मुलन सचमुच सम्भव हो सकता है। अन्यथा इस प्रकार कागज रंगने, भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित करने या मंच पर चिल्लाने मात्र से अपराधों का निराकरण करना असम्भव है।
जब शासन तंत्र में चारा घोटाला, ताबूत घोटाला आदि देष को खोखला करते जा रहे हैं तो जन-साधारण की कौन कहे? और यदि किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही की भी जाती है तो छोटा कर्मचारी मारा जाता है जबकि बड़ी मछलियाँ साफ निकल जाती हैं। ईमानदार अफसरों को प्रतिवर्ष स्थानान्तरण का सामना करना पड़ता है जबकि भ्रष्ट अफसर अपने पद से जरा भी नहीं खिसकते। जो व्यक्त् िजितना बड़ा है वह उतने ही बड़े अपराधों में लिप्त है। ठेकेदार सीमेंट की कमी रेत मिलाकर पूरी करता है, फैक्ट्री निरीक्षक, उत्पादक कर निरीक्षक, माप, तौल, बाट सफाई निरीक्षक खाद्य सामग्री के नमूने भरने वाले आज सभी मालामाल हो रहे हैं। यह एक ऐसा जहर है जो सभी पी रहे हैं। इसके बावजूद भी पुरस्कृत किया जाता है उन धोखेबाजों को जो दूध में यूरिया, दवाईयों में मिलावट तथा मासूम बच्चों के गुर्दों का व्यापार कर कर इंसान के साथ हैवानियत का नंगा नाच खेलने पर उतारु हैं। जहाँ मानवता के संहार का तांड़व नृत्य, बेघर होने की असहनीय पीड़ा को भोगते कितने ही देषवासी और भगवान के नाम पर चलाये जा रहे आश्रमों में दानवता का नग्न रूप जैसे बढ़ते अपराध, इंसानियत का सिर झुका देने के लिए काफी हैं। अपराधों की चरम सीमा के अन्र्तगत शायद यह कहना अनुचित न होगा कि ‘‘सनम तू जहर खाकर भी नहीं मर सकता क्योंकि इस शहर के जहर में भी मिलावट है।’’
हर अपराध को रोकने लिए जब-जब नियम व कानून बनाये जाते हैं तब-तब उन नियमों व कानूनों को जेब में डाल अपराधों की संख्या में निरन्तर बढ़ोतरी करता हुआ मानव सीढ़ी के दो डंडे और ऊपर चढ़ जाया करता है।
अगर गहराई से दृष्टिपात किया जाए तो हमारे सामने आता है ‘‘बुभुक्षित किं न करोति पापम्’’ अर्थात् भूखा व्यक्ति क्या पाप नहीं कर सकता?’’
सर्वप्रथम निर्धनों की निर्धनता, बेरोजगारों की बेरोजगारी दूर करने का प्रयास किया जाए तो अपराधों का चढ़ता स्तर स्वयं ही नीचे आने लगेगा। इसके लिए समाज-सुधारकों तथा देष के कर्णधारों को भी ऐसी भावी योजना का निर्माण करना होगा, जो स्वस्थ तथा सुन्दर समाज के निर्माण मंे सहयोगी व पथ-प्रदर्षक के रूप में कार्य करे।
एक सीधी सच्ची कहावत है कि जब प्रेम, नियम व कानून की चाल असफल हो जाए तो अंतिम आवष्यकता है डंड़ा यानि कठोर दण्ड का प्रावधान। क्योंकि जहाँ एक अपराध की दण्ड की कठोरता दूसरे अपराध का गला घोंटती है वहीं अपराधी को खुला छोड़ देना और पीडि़त व्यक्ति के प्रति न्याय न होना अपराधी के हाथों का मजबूत बनाता है। पाकिस्तान में एक बलात्कारी की सजा फाँसी है। परिणाम, वहाँ ऐसे अपराध चुनिन्दा ही होते हैं। क्योंकि अपराध करने से पहले अपराधी परिणाम की सोचकर चलता है। वहीं हमारे देष में आये दिन समाचार पत्रों के पन्ने इन घटनाओं से रंगे-पुते रहते हैं। अपराधी पैसे देकर छूट जाते हैं और पीडि़त लड़कियों को कटघरे में खड़ा कर अदालती कार्यवाही अपने अष्लील प्रष्नों द्वारा एक बार फिर निर्वस्त्र करने पर मजबूर कर देती है। परिणाम, कुछ बेबस लड़कियाँ इस नासूर के साथ जीने की अपेक्षा मर जाना श्रेयस्कर समझती हैं और जो जिन्दा रहती हैं उन्हें समाज के तानों उलाहनों के साथ मरने से भी अधिक पीड़ा भोगनी पड़ती है।
कठोर दण्ड़ का प्रावधान उन्हीं लोगों द्वारा चलाया जा सकता है जिनका चरित्र पाक व साफ हो। इसके साथ-साथ जब तक प्रत्येक व्यक्ति स्वयं यह नहीं समझेगा कि हम देष के लिए काम कर रहे हैं, तब तक ऊपर नहीं उठ सकता। भले ही कुछ लोग घूसखोरी और लगाव-बुझाव में न फंसे हो, लेकिन उसमें फंसे हुए लोगों को जानते हुए भी उनके प्रति उदासीनता बरतते हैं, वे भी उतने ही अपराधी हैं।
प्रजातांत्रिक शासन-प्रणाली में जनता की आवाज शासन तक सरलता से पहुँच जाती है। जनता अपने सम्पूर्ण नैतिक बल और साहस से अपराधों को मिटाने का प्रयत्न करे।
पुलिस, राजनीति व अन्य क्षेत्रों में योग्यताा तथा चरित्र के धनी लोगों का ही मनोनयन होना चाहिए। योग्यता को जब अनदेखा कर दिया जाता है और पैसे को महत्ता दी जाती है तो कभी-कभी वही योग्यता विद्रोह का रूप धारण कर अपराधों को बढ़ावा देती है।
सम्भव सब कुछ है आवष्यकता है तो बस धैर्य, लगन व परिश्रम की, और इस आध्यात्मिक भावना को जगाने की, कि भगवान हमारे सभी शुभ तथा अषुभ कर्मो ं को प्रतिपल निहारा करता है। उसकी दृष्टि से कोई बच नहीं सकता। इन्हीं भावना के द्वाराा देष व समाज का कल्याण संभव है।
इन सब भावनाओं के अतिरिक्त सबसे अहम् सवाल है राजनीति में लगे ग्रहण पर सोच-विचार करने का। व्यवस्था और व्यवस्थापकों के चरित्र को साफ और पाक बनाने के लिए नेताजी सुभाष, सरदार पटेल, रफी अहमद किदवई, लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं की आवष्यकता है। इन्दिरा गाँधी जैसे व्यक्तियों की महज इसलिए आवष्यकता है कि वे विनोबा भावे शब्दों को फिर से किसी प्रकार का अनुषासन पर्व, जन-जीवन और सरकार पर ठोंक सकें। इच्छाओं का परिसीमन चाहे वह डंडे के बल पर ही क्यों न करना पड़े राष्ट्रीय चरित्र का हर सम्भव उपाय से निर्माण दूषित और अपराधी मनोवृत्ति वाले तथाकथित नेताओं अफसरषाही का बलपूर्वक नियमन और उदात्त मानवीय भावनाओं का जाकरण ही वे उपाय हैं जिनसे अपराधों का उन्मुलन सचमुच सम्भव हो सकता है। अन्यथा इस प्रकार कागज रंगने, भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित करने या मंच पर चिल्लाने मात्र से अपराधों का निराकरण करना असम्भव है।